
शहीद सीताराम की शहादत को सात साल, अब तक नहीं बनी प्रतिमा : खोखली साबित हुईं घोषणाएं
हर साल श्रद्धांजलि, लेकिन स्मारक का नामोनिशान नहीं
डीजे न्यूज, गिरिडीह : 18 मई यह तारीख गिरिडीह के पालगंज गांव के लिए न भूलने वाली बन गई। बीएसएफ के जवान सीताराम उपाध्याय इसी दिन देश की रक्षा करते हुए जम्मू-कश्मीर के आरएसपुरा सेक्टर में पाकिस्तानी गोलीबारी में शहीद हो गए थे। लेकिन आज, सात साल बाद भी वह इंतज़ार अधूरा है – एक शहीद के सम्मान में एक प्रतिमा तक नहीं बन सकी।
हर साल श्रद्धांजलि, लेकिन स्मारक का नामोनिशान नहीं
सीताराम उपाध्याय की शहादत के बाद हर साल गांव में बलिदान दिवस मनाया जाता है। युवाओं द्वारा तिरंगा यात्रा निकाली जाती है, तस्वीर पर माल्यार्पण कर श्रद्धांजलि दी जाती है। लेकिन एक स्थायी स्मारक या प्रतिमा के अभाव में यह आयोजन अधूरा सा लगता है। न कोई स्थल है, जहां लोग सिर झुकाकर नमन कर सकें, न ही कोई निशानी जो आने वाली पीढ़ियों को उनकी बहादुरी की याद दिला सके।
सिर्फ घोषणाओं का जाल
शहादत के वक्त नेता और अधिकारी बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर गए — प्रतिमा निर्माण, मार्ग का नामकरण, बच्चों की शिक्षा, माता-पिता की देखभाल। धनबाद के सांसद ढुल्लू महतो ने पालगंज मोड़ पर प्रतिमा लगवाने की घोषणा की थी, गिरिडीह सांसद चंद्रप्रकाश चौधरी ने तोरण द्वार का शिलान्यास किया। लेकिन पांच सालों में प्रतिमा नहीं बन सकी, और तोरण द्वार यह कहकर नहीं बना कि “सरकारी प्रावधान में नहीं है।”
माता-पिता को नहीं मिला हक
बलिदानी सीताराम उपाध्याय के दिव्यांग पिता ब्रजनंदन उपाध्याय और माता किरण देवी आज भी उपेक्षा का जीवन जी रहे हैं। शहादत के नाम पर सिर्फ ₹1000 की पेंशन मिलती है। अन्य कोई सरकारी सहायता अब तक नहीं मिली। बेटा और बहू मधुबन में रहते हैं, कभी-कभी पालगंज आते हैं, पर माता-पिता अधिकतर अकेले ही रहे हैं।
सम्मान की प्रतीक्षा अब भी जारी
सात साल बाद भी यह सवाल कायम है — क्या देश के लिए जान देने वाले जवान को यही सम्मान मिलना चाहिए? एक प्रतिमा, एक तोरण द्वार, कुछ वादे — क्या इन्हें पूरा करने में सात साल भी कम पड़ गए? अब भी समय है कि सरकार, प्रशासन और जनप्रतिनिधि अपने वचनों को निभाएं और शहीद सीताराम उपाध्याय को वह सम्मान दें, जो उनके बलिदान के योग्य है।