होली पर भी चढ़ रहा आधुनिकता का रंग

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होली के त्योहार पर भी अब आधुनिकता का रंग चढ़ गया है। आज के युवा परंपरागत होली को भूल रहे हैं। साॅशल मीडिया में सिमट चुका एक बड़ा वर्ग अब केवल मेसेज व वीडियो फारवर्ड कर इस त्योहार को आधुनिकता का रंग दे रहे हैं। बड़े-बूढ़े बताते हैं कि आज से तीन दशक पूर्व तक लोगों द्वारा होली यानी फगुआ का त्योहार परंपरागत तरीके से मनाया जाता था। माघ बसंत पंचमी से ही फगुआ के रस भरे गीत गांवों में गूंजने लगते थे। लोग गांव के चैक-चैपालों ढ़ोलक, झाल, करतार, मृदंग लेकर एक साथ बैठकर देर रात तक फगुआ के रसप्रिय गीत गाते थे। ‘ जाने दो जमुना मोहन …‘, ‘वर्षा ऋतु बीत गये हो आली श्यामसुंदर ब्रज न आये …‘, ‘कन्हैया रस के चोर बालम झूला लगा दे …‘ आदि पारंपरिक गीत कई दिनों तक फिजा में तैरते रहते थे।
इस मौके पर होरियारों को घर-घर से होली गीत गाने का बुलावा आता था। जहां उनकी देर रात तक फगुआ गीत की महफिल जमती थी तथा घरवाले यथासंभव उनका सत्कार भी करते थे। आगजा यानी होलिका दहन के मौके पर होरियारों का दल ढ़ोलक, मंजीरे, झाल की ताल पर फगुआ के गीत एवं जोगीरा गाते- नाचते, होलिका दहन स्थल की ओर सैकड़ों की संख्या में एक साथ जाते थे। इसी बीच अन्य ग्रामीणों द्वारा होलिका दहन हेतु लकड़ी, गोइठा, बिचाली आदि की व्यवस्था कर सब मिलजुल कर एक साथ सम्मत जलाते थे। होली के दिन सबसे पहले होरियारों का दल सम्मत की धूल एवं राख उड़ाने होलिकादहन स्थल पर जाता था। उसी के साथ रंगों की होली प्रारंभ हो जाती थी। वहीं शाम को अबीर गुलाल की होली खेली जाती थी। लोग अपने से बड़ों के पैर पर अबीर-गुलाल डालकर उनसे आर्शीवाद लेते थे। वहीं घरवालों द्वारा पुअ पकवान खिला कर उनका स्वागत किया जाता था। पर अब इस तरह की परंपरागत होली बहुत ही कम देखने को मिलती है। होली के नाम पर देखने को मिलता है तो केवल हुड़दंग।
विलुप्ति के कगार पर फगुआ के गीत
अब होली के दिनों में न ढ़ोलक, न झाल, न फगुआ के गीत बस नशे में धुत युवाओं की टोली फूहड़ गानों की धून पर नृत्य करते नजर आते हैं। जिस कारण परंपरागत होली एवं फगुआ के गीत विलुप्ति के कगार पर है।

  – जयकुमार शुक्ला
लेखक  जमुई (बिहार) के वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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