

भभरी, दुधोरी, पनहिस्का, दहियोरी को टुंडी का ब्रांड बना सकते हैं नव उद्यमी
मनियाडीह के गुड़ का लड्डू और घुघनी मुढ़ी को भी किया जा सकता प्रसिद्ध
फूड डेस्टिनेशन के रूप में विकसित हो सकता टुंडी
किसी क्षेत्र विशेष के विकास में स्थानीय लोगों का मूल से जुड़ाव एक अहम कारक होता है। स्थानीय संस्कृति, वेश- भूषा, खान -पान, गीत -संगीत, विवाहादि की परंपरा और स्थानीय मान्यताओं का असर भी विकास और रोजगार पर व्यापक होता है। आप इन बातों की अनदेखी कर विकास की योजना नहीं बना सकते न उसमे सफल हो सकते हैं। यदि आप किसी योजना को उनकी मौलिकता के साथ जोड़ देते हैं सफलता की संभावना कई गुणा बढ़ जाती है।
इस क्रम में मै आज चर्चा करना चाहूंगा यहाँ के विशिष्ट खाद्य देशज व्यंजनों की। विज्ञापन और टेलीविजन द्वारा आरोपित अपसंस्कृति ने आज मानो इसे कहीँ पीछे ढकेल दिया है। आज आवश्यकता है उसे जगाने की। कभी धन कटाई के साथ यहां घरों में पीठा, छिलका, भभरी, भभरा, अरसा, दुधोरी, दहियोरी, धुसका, पन्हिस्का बनने लगते थे।मकर संक्रांती को लोग बान्डू के रूप में मनाते थे जिसमे मुख्य रूप से चावल के बेलनवां रोटी बनती थी। आलू और तमाटर के झोलदार सब्जी के साथ इसका आनंद ही कुछ और होता था। उसपर भी यदि इसमे लत्ती वाला टमाटर ( बिलाती) डाला जाता था स्वाद अपने चरम पर होता था। आधुनिकता की अंधी दौड़ में लोग आज स्वाद के उस खाँटीपन को भूलते जा रहे हैं। पहले पुस महीने में पुसालो या बनभोज से लौटने पर चावल से बने खाने का प्रचलन था। शायद यह सुपाच्य होता है इसीलिए यह परंपरा बनी होगी। इसमें मुख्य रूप से भभरी बनती थी। भभरी आज के डोसा का शुद्ध देसी संस्करण था। चावल और दाल को पीसकर, नमक, टमाटर, हल्दी और अन्य मशालों के साथ इसे डोसा के रूप में ही बनाया जाता था। पुनः इसे सेम के सौन्धा और बैंगन, आलू और बड़ी की सब्जी के साथ परोसा जाता था। साथ में तमाटर की मिठी चटनी का आनंद ही कुछ और था। मेरे गांव में आने वाले अतिथियों का यह परम रुचिकर भोजन होता था। चावल का छिलका स्वाद में सादा होता है इसे आप दूध और सब्जी दोनों के साथ खा सकते हैं। इसी प्रकार, धुसका भी एक नमकीन नाश्ते के रूप में बहुत महत्वपूर्ण था। इसे आप नमकीन पुआ भी कह सकते है। धुसका को जब घूघनी या छोले और धनिया पत्ती की चटनी के साथ परोसा जाता था तो उस देसज जायके की स्मृति अरसे तक कायम रहती थी। स्थानीय पीठा आज के प्रचलित मोमो का देसी संस्करण ही तो है। चावल के आटे में सब्जी, तिसी, तिल, सब्जी , दाल और अन्यान्य खाद्य पदार्थों को भर और उसन कर बनाया जाता है। एक खोवा भर कर छोटी पिट्ठी बनाई जाती थी और उसे गाढ़े मीठे दुध में डालकर परोसा जाता था। इसका भी स्वाद अद्भुत होता था। इसे अमृत बड़ी कहा जाता है। इसी तरह दल पिट्ठी भी बनती थी। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी ये बहुत लाभदायक थे। इसी प्रकार दुधोरी भी एक मिठा व्यंजन है। इसे आप गुलाब जामुन का देसी संस्करण कह सकते हैं। चावल को दूध में उसन कर लई को तला जाता है फिर उसे चासनी में डुबोकर परोसा जाता है। दहीयोरी भी कुछ ऐसा ही होता है। सबसे अलग और खास है धकनेसर या पनहिस्का। चावल के लोए को भाफ में पकाकर गुड़ की चासनी में डाल कर खाया जाता है। चूँकि इसे मिट्टी के बर्तन में ढक्कन से ढक कर बनाया जाता है फलतः इसमें मिट्टी की सौंधी खुशबु एक अजीब सा स्वाद उत्पन्न करता है। इन सब खाद्य पदार्थों की चर्चा के पीछे मेरा उद्देश्य साफ है। क्यों न हम इन्हे पुनः स्थापित करते हुए इसे व्यापारिक ऊंचाई प्रदान करें। यदि टुंडी के आसपास आज चाउमीन की दस दुकानें चल सकती हैं तो क्या इनकी पांच दुकानें क्या नहीं चलेंगी? जब मैं हजारीबाग में पढ़ता था तब एक बात सोचा करता था कि यदि इचाक की बालुशाही, टाटी झरिया का गुलाब जामुन और चौपरण का खीर मोहन प्रसिद्ध हो सकता है तो फिर टुंडी की दुधोरी और भभरी क्यों नहीं। दक्षिण भारत, थाईलैंड आदि में कई गांव फूड डेस्टिनेशन के रूप में विकसित हुए तो टुंडी क्यों नहीं। टुंडी में भी कुछ होटल इन व्यंजनों को “सिग्नेचर डिश” बनाकर अच्छा लाभ कमा सकते हैं। आज भी लोग इन खानों के लिए लालायित रहते हैं। यदि सुबह स्थानीय दुकानों में कचौडी सब्जी मिल सकती है तो भभरी सब्जी और जलेबी की जगह दुधोरी क्यों नहीं बिकेगी? वह भी शुद्ध देसी सखुए के पत्तल में। आज फूडी लोगों की कोई कमी नहीं है। प्रचार तंत्र का सहारा लिया जाए तो मनियाडीह के गुड़ का लड्डू और घुघनी मुढ़ी को भी ब्रांड बनाया जा सकता है। यह पूर्णतः नया क्षेत्र है अतः विकास की संभावना भी अपार है। आजकल फूड वैन के आने से ऐसी चलंत दुकानों के द्वारा इनका प्रचार और भी आसान हो गया है। कोई भी पुरानी मारुति वैन के सहारे भी कम पूंजी में इन दुकानों को चला सकता है। मेले त्योहारों में भी इसे अच्छा बाजार मिल सकता है। शादी विवाह में भी इन क्षेत्रीय पकवानों का प्रयोग नयापन ला सकता है। जो लाइन होटल अभी चल रहे हैं वे भी बतौर डेसर्ट इन देसी मिठाइयों का प्रयोग कर सकते हैं। कुल मिलाकर देखें तो आज के दौर में टुंडी के नव उद्यमी इन खानों की दुकानों के द्वारा भी अच्छा लाभ कमा सकते हैं और इन्हे व्यवसाय के रूप में प्रोमोट कर अपनी खाद्य संस्कृति को बचाने में अपना बहुमुल्य योगदान दे सकते हैं।
जयंत चक्रपाणी, शिक्षक
