पारसनाथ पर्वत : एक बार बंदे जो कोई ताही नरक पशु गति नहीं होई

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दीपक मिश्रा

झारखंड राज्य के गिरिडीह जिला स्थित पारसनाथ पर्वत जैन धर्मावलंबियों का पवित्र तीर्थस्थल है। जैन धर्म के 24 में से 20 तीर्थंकरों ने यहां निर्वाण प्राप्त किया है यही वजह है कि हरेक जैन धर्मावलंबी अपने जीवन में कम से कम एक बार यहां जरूर आना चाहते हैं। शास्त्रकारों का कहना है – ‘एक बार बंदे जो कोई ताकि नरक पशु गति नहीं होई’ अर्थात पूरी भावना से जो भी व्यक्ति एक बार इस पर्वत की वंदना कर लेता है उसे फिर नरक या पशु गति प्राप्त नहीं होती है। हर वर्ष हजारों की संख्या में यहां तीर्थयात्रियों का आगमन होता है। इस पर्वत की यात्रा काफी सुखद अहसास दिलाती है।

आम तौर पर पर्वत यात्रा की शुरूआत मधुबन (मधुबन का पूरा विवरण एक अलग लेख में दिया गया है) से सुबह दो बजे से शुरू हो जाती है। आपको यहां बता दूं कि जैन धर्म में मूल रूप से दो पंथ हैं& एक दिगंबर पथ तथा दूसरा श्वेतांबर। श्वेतांबर मतावलंबी यात्रा करने से पहले मधुबन स्थित जैन श्वेतांबर कोठी के भोमिया जी मंदिर में भोमिया बाबा का दर्शन करना नहीं भूलते। मानते हैं कि भोमिया बाबा के दर्शन से पर्वत यात्रा र्निविघ्न पूरी होती है। सुबह जब तक श्वेतांबबर कोठी का गेट नहीं खुलता तब तक बिना दर्शन किए श्वेतांबरी आगे नहीं बढ़ते। वे व्यक्ति जो शारिरिक रूप से कमजोर होते हैं तथा पैदल पर्वत चढ़ने की हिम्मत नहीं कर पाते हैं वे डोली बूक कर लेते हैं। डोली दो तरह की होती है। एक सादी डोली जिसे दो व्यक्ति उठा कर ले जाते हैं तथा दूसरी कुर्सी डोली होती है जिसे चार लोग उठा कर ले जाते हैं। हलांकि कुर्सी डोली ज्यादा आरामदायक होती है। दोनों का अलग&अलग रेट है। डोली वाले यात्री के वजन के हिसाब से डोली का किराया तय करते हैं। अगर आप एक दिन पूर्व कोई डोली बूक नहीं कर पाये हैं तो भी कोई बात नहीं रास्ते में आपको कई डोली वाले मिल जाऐंगे। पर कोई डोली बूक करने से पहले डोलीवालों से डोली का किराया तय कर लें ताकि बाद में कोई किचकिच न हो तथा आपकी यात्रा में भी किसी प्रकार का खलल न पड़े।

अगर एक भक्त सुबह पांच बजे यात्रा के लिए निकलता है तो आधे घंटे में लगभग डेढ किलोमीटर ही चढ पाता है। डेढ किलोमीटर की दूरी पर कलीकुंड तीर्थधाम नामक एक मंदिर है। यह एक श्वेतांबर जैन मंदिर है यहां से लगभग डेढ़ किलोमीटर और चढ़ने पर एक नाला दृष्टिगोचर होता है । इस नाला का नाम गंधर्व नाला है, डोली वाले व तीर्थयात्री यहां थोड़ी देर विश्राम  करते हैं। लौटते समय यहां पर तीर्थयात्रियों को भाता नाश्ताद्ध दिया जाता है। यहां से आगे बढ़ने के बाद एक और नाला मिलता है जिसका नाम सीता नाला है। यहां आते आते थकान से शरीर निढ़ाल होने लगता है। बैठने का मन कर रहा होता है। यहां नींबू] पानी, चाय आदि की कई दुकाने हैं लिहाजा लोग यहां बैठकर सुस्ताना नहीं भूलते हैं। यहां खाने पीने का सामान आपको महंगा लग सकता है। यहां के दुकानदार मजदूरी देकर ये सभी सामान मधुबन से मंगवाते है, घर छोड़कर दिनरात पहाड़ में रहते हुए दुकानदारी करते हैं तो स्वभावकि है कि ज्यादा कीमत पर बेचेंगे।

सीतानाला के बाद से खड़ी चढ़ाई शुरू हो जाती है। फिर भी यात्रियों के बीच पर्वत की चोटी तक जाने का उत्साह आपको दंग कर देगा। पर्वत यात्रा करने की प्रबल भावना, उत्साह व उमंग के समक्ष लगभग पांच हजार फीट की उंचाई बौनी प्रतीत होने लगती है। तीर्थंकरों का जयकारा लगाते हुए आगे बढ़ती भक्तों की टोली थक चुके लोगों में भी एक नयी उर्जा का संचार करती है। मुश्किल से एक&एक कदम बढ़ाते हुए जब भक्तगण चौपड़ाकुंड तक पहुंचते हैं जो कि  एक दिगंबर जैन मंदिर है यहां दर्शन पूजा करने के बाद जब उन्हें यह पता चलता है कि वे अब लगभग पहुंच चुके है। तो कदम बरबस ही मंजिल की ओर तेजी से बढ़ने लगते हैं। हलांकि यह फासला चंद मिनटों का ही है लेकिन इस जगह की खड़ी चढ़ाई किसी का भी उत्साह को मंद कर देने में सक्षम है।

एक औसत चाल से चलने पर  यानी  लगभग तीन घंटे में एक भक्त मंदिरों की दुनिया में प्रवेश कर जाता है । मंद मंद बह रही ठंढ़ी हवा जब शरीर का स्पर्श करती है तो लगता है मानों शरीर का थकान हर ले रही हो साथ ही साथ मंदिर व टोंको की इस दुनिया में गर्मजोशी से स्वागत कर रही हो। यहां पहुंचते ही भक्तगण  सुस्ताते हुए प्रकृति की इस अनुपम छटा को एकटक निहारते हैं। इस अनुपम दृश्य को अपनी आंखों में समेट लेना चाहते हैं तो  वहीं कुछ अपने मोबाइल व कैमरे में भी यहां के हरेक नयनाभिराम दृश्य को कैद कर लेते हैं। गौतम स्वामी टोंक में दर्शन पूजा के बाद भक्तों का कारवां पूर्व दिशा की ओर बढ़ने लगता है। यह रास्ता मुनि सुव्रतनाथ टोक होते हुए श्री चंद्रप्रभु टोंक तक जाता ह। गौतम स्वामी टोंक से चंद्रप्रभु टोंक की दूरी तीन किलोमीटर है। हलांकि कुछ लोग गौतम स्वामी टोंक से सीधे जलमंदिर चले जाते हैं जो जिसकी दूरी महज डेढ़ किलोमीटर है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि अगर ग्यारह बजे के बाद गौतम स्वामी टोक पहुंचते हैं तो फिर बेहतर होगा कि चंद्रप्रभु टोक न जायें क्योंकि बाद में वह क्षेत्र सुनसान हो जाता है।

चंद्रप्रभु टोंक के बाद भक्तों का जत्था अनंतनाथए शीतलनाथ तथा अभिनंदन स्वामी का टोंक होते हुए जलमंदिर पहुंचता हैं। जलमंदिर में सभी तीर्थंकरों की प्रतिमा विराजमान है। मुख्यतः यहां श्वेतांबर मतावलंबी पूजोपासना करते हैं। जलमंदिर के बाद पुनः यात्री गण गौतमस्वामी टोंक पहुंचते हैं। उसके बाद पश्चिम दिशा में पडने वाले सभी टोंकों का दर्शन करते हुए अंत में पार्श्वनाथ मंदिर पहुंचते है। गौतम स्वामी टोंक से पार्श्वनाथ मंदिर की दूरी लगभग डेढ़ किलोमीटर है। पूरे पर्वत में 24 तीर्थंकरों के अलावा 6 अतिरिक्त टोंक हैं। मधुबन से गौतम स्वामी टोंक तक आने में 9 किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती वहीं पर्वत के उपर सभी टोंको का दर्शन करने में भी आपको 9 किलोमीट का फासला तय करना पड़ेगा। इस तरह कुल मिलाकर आने जाने व मंदिर दर्शन करने में 27 किलोमीटर की पद यात्रा पूरी करनी होगी। पार्श्वनाथ मंदिरए जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ  का है तथा यह पर्वत की सर्वोच्च चोटी पर स्थित है। बताया जाता है कि भगवान पार्श्वनाथ  के नाम पर ही इस पर्वत का नाम पारसनाथ पड़ा। यहां से दूर दूर तक पर्वत की खूबसूरत वादियों को देखनाए सूर्य की किरणों में विभिन्न टोंको को चमकते हुए देखनाए कही दूर से आ रही ट्रेन की आवाजए जीटी रोड पर धुंधली धुंधली सी नजर आती वाहनों की कतारए सामने की चट्टानों पर अठखेलियां करती बंदरों की टोलियां तथा तरह तरह के पक्षियों का कलरव। ये कुछ एसी चीजें हैं जिसे शब्दों से बयां कर पाना मुश्किल हैए बस आप इसे महसूस कर सकते हैं।

क्या न करें .

शार्ट कर्ट रास्ता कभी न लें। एक तो इससे थकान बढ़ती है उपर से रास्ता ग़ड़बड़ाने की संभावना बनी रहती है। हमेशा पैदल वंदना मार्ग पर ही चलें।

बंदरों को कुछ भी हाथ से खिलाने की कोशिश न करें।

पर्वत यात्रा कब करें .

यूं तो अब सालोभर कमोबेश तीर्थयात्रियों का आगमन होने लगा है। पर  होलीए सावन सप्तमीए दिवाली आदि ऐसे अवसर हैं जब भारी संख्या में तीर्थयात्री पहुचते हैं।

 

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