

कोयलांचल में मुस्लिम राजनीति ठहरी, नई पीढ़ी का नेतृत्व नहीं उभरा
मुस्लिम वोट बैंक तो है, लेकिन नेतृत्व का भविष्य अधर में
सरफराज अहमद, मन्नान मल्लिक और डॉ. सबा अहमद जैसे नेता नई पौध खड़ी करने में विफल रहे, सफलता के द्वार तक पहुंचकर पीछे रह गए हफिजुद्दीन अंसारी
दिलीप सिन्हा, धनबाद : झारखंड के तीन लोकसभा क्षेत्रोंं क्रमश : धनबाद, गिरिडीह और कोडरमा की राजनीति में मुस्लिम नेताओं का दबदबा रहा है। इन तीनों क्षेत्रों से मुस्लिम नेता लोकसभा और विधानसभा का चुनाव जीतते रहे हैं। संयुक्त बिहार और बाद में झारखंड की राजनीति में इस क्षेत्र के मुस्लिम नेताओं की मजबूत पकड़ रही। गिरिडीह लोकसभा क्षेत्र से चुनकर जाने के बाद सरफराज अहमद का कद कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरा था। यहां के प्रमुख मुस्लिम नेताओं में डा. सरफराज अहमद के अलावा पूर्व मंत्री मन्नान मल्लिक एवं दिवंगत पूर्व मंत्री डॉ. सबा अहमद का नाम लंबे समय तक सुर्खियों पर रहा है। राज्यसभा सदस्य बनकर सरफराज अहमद आज भी झामुमो की राजनीति में सक्रिय हैं। इस काेयलांचल में मुस्लिम वोट बैंक आज भी निर्णायक है। 14 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम वोट कमोबेश तीनों लोकसभा क्षेत्रों में हैं। बावजूद मुस्लिम लीडरशिप की सेकेंड लाइन नहीं खड़ी है। कोयलांचल में मुस्लिम राजनीति दशकों से उन्हीं पुराने नामों के इर्द-गिर्द घूमती रही है, नए चेहरे नदारद हैं। सरफराज अहमद, मन्नान मल्लिक और डॉ. सबा अहमद जैसे नेता मुस्लिम राजनीति में नई पौध खड़ी करने में विफल रहे। ना तो इनके परिवार से और ना ही इनके परिवार के बाहर से कोई मुस्लिम नेता उभर सका। नई पीढ़ी की लीडरशिप के अभाव में मुस्लिम राजनीति ठहराव की स्थिति में फंसी दिखती है।
कोई दल न तो प्रत्याशी बना रहा और न ही जिलाध्यक्ष
हद तो यह है कि मुस्लिम वोट बैंक के बलबूते उत्तरी छोटानागपुर में भाजपा को चुनौती देने वाला इंडिया गठबंधन भी मुस्लिम नेताओं को चुनावी मैदान में उतारने को तैयार नहीं है। लोकसभा छोड़िए विधानसभा चुनाव में भी इस क्षेत्र में एक भी सीट से कांग्रेस ने मुस्लिम प्रत्याशी नहीं दिया। पूरे राज्य में कांग्रेस ने सिर्फ दो मुस्लिम प्रत्याशी जामताड़ा और पाकुड़ में उतारे और दोनों विजयी रहे। झामुमो ने पिछले विधानसभा चुनाव में राजधनवार में मुस्लिम प्रत्याशी पूर्व विधायक निजामुद्दीन अंसारी को उतारा जरूर, लेकन उन्हें गठबंधन का प्रत्याशी नहीं बना सका। वहां गठबंधन के घटक दल माले से पूर्व विधायक राजकुमार यादव भी मैदान में थे। नतीजा हुआ इन दोनों की लड़ाई में वहां आसानी से भाजपा के बाबूलाल मरांडी बाजी मार गए। सरफराज अहमद के गांडेय विधानसभा सीट छोड़कर राज्यसभा में जाने से गांडेय सीट भी मुस्लिल कोटे से निकल गई।
चुनावों में प्रत्याशी बनाना तो छोड़िए, अब कोई दल किसी मुस्लिम नेता को जिलाध्यक्ष भी नहीं बना रहा है। उदाहरण देख लीजिए-कांग्रेस के धनबाद जिलाध्यक्ष संतोष कुमार सिंह, गिरिडीह जिलाध्यक्ष धनंजय सिंह, बोकारो जिलाध्यक्ष उमेश गुप्ता और कोडरमा जिलाध्यक्ष भागीरथ पासवान हैं। साफ है-इनमें एक भी मुस्लिम नहीं हैं। इसी तरह झामुमो के धनबाद जिलाध्यक्ष लखीराम सोरेन, गिरिडीह जिलाध्यक्ष संजय सिंह एवं कोडरमा जिलाध्यक्ष बिरेंद्र पांडेय हैं। यहां भी कोई मुस्लिम जिलाध्यक्ष नहीं।
विधानसभा के द्वार तक पहुंचकर पीछे रह गए हफिजुद्दीन अंसारी, निकाय चुनाव में शानदान प्रदर्शन करने वाले शमशेर आलम को नहीं मिला मौका
धनबाद की राजनीति में मुस्लिम चेहरा के रूप में झामुमो से हफिजुद्दीन अंसारी और गुल्लू अंसारी की जोड़ी तेजी से उभरी थी। हफिजुद्दीन अंसारी ने सिंदरी विधानसभा क्षेत्र से कई बार मासस के आनंद महतो को कांटे की टक्कर दी थी। विधानसभा चुनाव जीतते-जीतते वह रह गए थे। बाद में हफिजुद्दीन अंसारी और गुल्लू अंसारी भी राजनीतिक रूप से हाशिये पर चले गए। इसी तरह कांग्रेस से झरिया के शमशेर आलम भी मुस्लिम नेता के रूप में उभरे थे। 2010 के धनबाद नगर निगम के चुनाव में डिप्टी मेयर के पद पर उन्होंने 18 हजार वोट लाकर सभी का ध्यान खींचा था। इसके बाद 2015 के नगर निगम चुनाव में शमशेर आलम मेयर के पद पर उतरे थे। कांग्रेस के दिग्गज नेता पूर्व मंत्री राजेंद्र प्रसाद सिंह, मन्नान मल्लिक, ओपी लाल ने कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी के रूप में इंटक नेता संतोष महतो को उतारा था। शमशेर अकेले मैदान में थे और करीब 60 हजार वोट लाकर सभी को चौंका दिया था। वह दूसरे नंबर पर रहे थे। वहीं संतोष महतो को मात्र साढ़े 13 हजार वोट मिले थे। इसके बावजूद कांग्रेस ने शमशेर आलम को प्रमोट नहीं किया। नतीजा हुआ कि कांग्रेस के मुस्लिम नेता के रूप में वह भी नहीं उभर सके।
