
… जब गुरूजी ने डुगडुगी बजा हजारों आदिवासियों को दिलाई थी मंदिर में पूजा करने की इजाजत
दिलीप सिन्हा, धनबाद : झारखंड आंदोलन के महानायक शिबू सोरेन यूं ही दिशोम गुरू नहीं कहे जाते हैं। राजनीतिक आंदोलन के साथ-साथ सामाजिक बदलाव के लिए भी वे जीवन भर लड़ते रहे। आज हम उनके दिवंगत होने पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनसे जुड़ी एक पुरानी कहानी शेयर करते हैं।
गिरिडीह और धनबाद के सीमा पर बराकर नदी के तट पर नंढ़ा महादेव मंदिर है। यह प्राकृतिक एवं ऐतिहासिक शिव मंदिर है। टुंडी के तत्कालीन राजा ने इस मंदिर में करीब तीन सौ साल पहले पहली बार पूजा की थी। यह खुला मंदिर है। इस मंदिर में छत बनाने की कोशिश कभी भी सफल नहीं हुई। प्रत्येक वर्ष 15 जनवरी को वहां विशेष पूजा होती है। खिचड़ी मेला लगता है जिसमें हजारों श्रद्धालुओं का जुटान होता है। पुरानी परंपरा के तहत इस मंदिर में पहले आदिवासियों को प्रवेश करने नहीं दिया जाता था। झारखंड आंदोलनकारी छतिकलाल मरांडी ने बताया कि 1973 में जब शिबू सोरेन पीरटांड़ और टुंडी में अलग राज्य का आंदोलन चला रहे थे तो उन्हें इस बात की जानकारी हुई कि नंढा महादेव मंदिर में आदिवासियों व दलितों को पूजा करने नहीं दिया जाता था। उन्होंने विरोध किया। उन्होंंने ऐलान किया कि 15 जनवरी को वह आदिवासियों के साथ डुगडुगी बजाते हुए नंढा महादेव मंदिर पहुंचेंगे। शिबू सोरेन के ऐलान से प्रशासन तक हिल गया। पूरे इलाके में पुलिस बल तैनात कर दिया गया। पंडा समाज के घोर विरोध के बीच शिबू सोरेन ने हजारों आदिवासियों व दलितों को शिव मंदिर में न सिर्फ प्रवेश दिलाया था बल्कि पूजा करवाया था। पंडा समाज के लोग भी अंत में मान गए। अब आदिवासी व दलित समाज के लोग सभी के साथ मिल-जुलकर यहां पूजा करते हैं। गिरिडीह, धनबाद एवं जामताड़ा से यहां श्रद्धालु पूजा करने पहुंचते हैं।