
हारेंगे तो क्या लड़ेंगे और जीतेंगे भी…
जिंदगी की जंग लड़ रहे झारखंड के शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन का जीवन कुछ ऐसा ही…
कई बार हारे, फिर जीते झामुमो के जिलाध्यक्ष हारकर जीते और बने
संसदीय राजनीति में जमशेदपुर पूर्वी और घाटशिला में हारे, फिर लहराया परचम
2024 के विधानसभा चुनाव से पहले किडनी फेल हो गई, लेकिन जीत गए बीमारी से जंग
पूर्णत: स्वस्थ नहीं होने पर भी चंपई की चुनौती के बावजूद बड़े अंतर से उनके बेटे बाबूलाल को हराया
जिंदगी की इस जंग को भी जीत ही जाएंगे रामदास, हेमंत सोरेन ने जताया पक्का भरोसा
दिलीप सिन्हा, धनबाद : हारे तो क्या, लड़ेंगे और जीतेंगे भी…। दिल्ली के अपोलो अस्पताल में जिंदगी की जंग लड़ रहे झारखंड के शिक्षा मंत्री रामदास सोरेन का जीवन कुछ ऐसा ही है। चाहे राजनीतिक जीवन हो या फिर निजी जीवन, कभी भी सफलता उन्हें सोने की थाली में परोसकर नहीं मिली है। संघर्ष, अटूट संघर्ष और फिर विजय — यही है उनके जीवन की कहानी। सबको यकीन है कि निश्चित रूप से जीवन की इस जंग को भी वो जीत ही जाएंगे, तभी तो मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी कहते हैं कि झारखंड आंदोलन के अग्रणी योद्धा रहे हैं रामदास दा। संघर्ष कर उन्होंने हमेशा हर चुनौती को मात दी है। इस बार भी वह विजयी होंगे। मरांग बुरू अपने इस लाल को शक्ति और साहस दे।
हम रामदास सोरेन के बारे में क्यों कह रहे हैं कि हारेंगे तो क्या लड़ेंगे और जीतेंगे भी… यह जानने के लिए हम आपको रामदास सोरेन के राजनीतिक जीवन की शुरुआत की ओर ले जा रहे हैं।
झारखंड आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के बाद रामदास सोरेन ने पूर्वी सिंहभूम झामुमो जिलाध्यक्ष के लिए दावेदारी पेश की। उस वक्त झामुमो के जिलाध्यक्ष रोडेया सोरेन थे। वह झामुमो के कद्दावर नेता पूर्व सांसद सुनील महतो की पसंद थे। उस वक्त रामदास सोरेन को चंपई सोरेन का प्रत्याशी माना गया था। दो बार वह जिलाध्यक्ष का चुनाव लगातार रोडेया सोरेन से हार गए। संगठन के कार्य में लगे रहे, हार नहीं मानी और अंततः पूर्वी सिंहभूम झामुमो के जिलाध्यक्ष बने। एक बार जिलाध्यक्ष बने तो दशक गुजर गए। आजतक वही जिलाध्यक्ष हैं।
अगर उनके चुनावी राजनीति के सफर का मुजायरा करे तो वही गीत याद आएगा, हार के बाद ही जीत है। उन्होंने पहला चुनाव जमशेदपुर पूर्वी विधानसभा सीट से लड़ा था जिसे भाजपा का अभेद किला कहा जाता है। रघुवर दास पहली बार चुनाव मैदान में उतरे थे तो दीना बाबा विधायक रहते भाजपा का टिकट कटने के कारण निर्दल मैदान में थे। यह 1995 का चुनाव था। रामदास सोरेन विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते थे। समस्या थी कि वे लड़ें तो किस सीट से। उनका घर टेल्को से सटा घोड़ाबांधा पंचायत में है जो जुगसलाई विधानसभा क्षेत्र में आता है। जुगसलाई अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट है। तब उन्होंने घाटशिला के बारे में सोचा भी न था। उनकी गतिविधियां जमशेदपुर पूर्वी में अधिक थी। सो, वही से झामुमो के टिकट पर मैदान ए जंग में उतर गए। बहुत टक्कर तो वे नहीं दे सके, लेकिन सम्मानजनक वोट लाने में जरूर सफल रहे। जमशेदपुर पूर्वी सीट पर आजतक उनके बाद जो भी झामुमो से लड़ा, वह रामदास सोरेन को तीस साल पहले हासिल वोटों के आंकड़े से आगे नहीं निकल सका है। हां, उस चुनाव में हार के बाद
रामदास सोरेन को यह मालूम हो गया कि भाजपा के गढ़ जमशेदपुर पूर्वी में झामुमो को विजेता बनने के लिए लंबा समय लगेगा। इसके बाद उन्होंने अनुसूचित जनजाति के लिए सुरक्षित घाटशिला सीट पर खुद को केंद्रित किया। घाटशिला पर्यटन का बड़ा केंद्र है। तांबा, यूरेनियम की खदानें वहां हैं। उस वक्त घाटशिला सीट कांग्रेस के प्रदीप कुमार बालमुचू का गढ़ था। वह लगातार घाटशिला से चुनाव जीत रहे थे। बावजूद इसके, रामदास सोरेन ने 2005 में झामुमो से बगावत कर घाटशिला की जंग में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में उतरने का निर्णय लिया।
बालमुचू की पहुंच कांग्रेस के दिल्ली दरबार तक थी। अंतिम समय में सोनिया गांधी बालमुचू के समर्थन में चुनावी सभा करने घाटशिला पहुंचीं। गठबंधन के कारण झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरेन को भी सोनिया गांधी के साथ घाटशिला में मंच साझा करना पड़ा। बालमुचू चुनाव तो जीत गए, लेकिन रामदास सोरेन दूसरे नंबर पर रहकर घाटशिला में अपनी जमीन तैयार करने में सफल रहे। इस हार से भी उनका मनोबल नहीं टूटा। वे लगातार पांच साल तक घाटशिला में सक्रिय रहे। इसके बाद 2009 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस व झामुमो का गठबंधन टूट गया। कांग्रेस से चौका लगाने बालमुचू उतरे, तो सामने झामुमो से रामदास सोरेन एवं भाजपा से फायरब्रांड नेता व पूर्व विधायक सूर्य सिंह बेसरा थे। कांटे की लड़ाई में रामदास ने बालमुचू को करीब 1192 वोटों से हरा दिया। पहली बार रामदास विधानसभा पहुंचे।
इसके बाद हुए 2014 के विधानसभा चुनाव में रामदास को भाजपा के लक्ष्मण टुडू ने हरा दिया। इस हार से भी वे नहीं टूटे। पांच साल बाद हुए 2019 के चुनाव में उन्होंने वापसी की। रामदास सोरेन के लिए सबसे बड़ी चुनौती 2024 के विधानसभा चुनाव में थी। कारण, कोल्हान के सबसे बड़े झामुमो नेता एवं मुख्यमंत्री चंपई सोरेन भाजपा में शामिल हो गए थे। भाजपा ने रामदास सोरेन के खिलाफ चंपई के बेटे बाबूलाल सोरेन को उतारा था।
झारखंड की राजनीति के जानकार वरिष्ठ पत्रकार अश्विनी रघुवंशी बताते हैं कि हार कर कैसे जीता जाता है, इसके सबसे बड़ा उदाहरण रामदास सोरेन हैं। उनके जीवन पर और गौर करे तो हमेशा ऐसा दिखेगा। झामुमो के संगठन में भी उन्हें थाल में ताज नहीं मिला। खूब मशक्कत की। विधायक बनने के लिए गांवों की धूल फांकी तो प्रदीप बालमुचू जैसे कद्दावर नेता को किनारे कर अपने लिए जगह बनाने में कामयाब हुए। अश्विनी रघुवंशी बताते हैं, 2024 के विधानसभा चुनाव के ठीक पहले उनकी किडनी ने जवाब दे दिया था। किडनी प्रत्यारोपण किया गया। पूरी तरह स्वस्थ नहीं हुए थे कि विधानसभा चुनाव आ गया। तमाम तरह के परहेज की चिकित्सकीय ताकीद थी। तुर्रा यह कि पूर्व सीएम चंपई सोरेन के पुत्र बाबूलाल सोरेन को भाजपा ने उनके खिलाफ खड़ा किया था। इसके बावजूद वो जीत गए, वह भी 22 हजार से अधिक वोटों से । तीसरी बार विधायक बने। हेमंत कैबिनेट में दूसरी बार मंत्री भी बने। अश्विनी रघुवंशी बताते हैं, सबको यकीन है कि पहले की तरह इस बार भी निश्चित रूप से रामदास सोरेन जिंदगी की जंग जीतेंगे और झारखंड की जनता की सेवा करेंगे।