


राम वनगमन
कांप उठी थी चहूू दिशा
ममता की माया नष्ट हुई थी
वज्रपात हुआ रघुकुल में
कैकई की बुद्धि भ्रष्ट हुई थी
दो वर ज्वाला जैसे फूटे
स्तब्ध हुआ आकाश भी
पुत्र भरत का राजतिलक
और राघव को वनवास भी
वचनों का आघात अवध पर
दुर्बुद्धि का विन्यास हुआ
दबे पाँव काल हुआ प्रविष्ट
दशरथ को आभास हुआ
कैकयी ! ये क्या वर माँगा?
प्राण ही क्यों ना मांग लिए
भरत को दे दूं राज सिंहासन
राम ने क्या अपराध किए?
चौदह वर्षों का वनवास !
यह वर मैं स्वीकारुं कैसे?
निकल जाए प्राण सहज है
मैं राम को निकालूँ कैसे?
माता का कोप पिता की पीड़ा
राम को फिर सब ज्ञात हुआ
उसी दिवस को रघुकुल रीत में
वचनों का मान विख्यात हुआ
रखने तब लाज वचन का
सन्यासी का रंग-रूप धरे
ले आशीष मातपिता का
अनुज-सीता संग राम चले
विरह वेदना में लीन प्रजा
वशिष्ठ के हाथ कर चले
मर्यादा के मूरत रघुनाथ
अवध को अनाथ कर चले
श्वास भी जैसे छूट रहा हो
सारी नगरी त्राहिमाम पुकारे
वियोग-विलाप का आर्तनाद
खग-मृग भी ‘राम’ पुकारे
नदी-वायु सब शिथिल हुए
विरहशोक का तेज भयंकर
त्रास विदारक पुरी में फैला
अन्धकार उत्पात चरम पर
आश्वस्त किए फिर आएँगे
गुरुजनों को प्रणाम किए
बेसुध छोड़ अवधनगरी को
रघुनन्दन वन प्रस्थान किए
रघुनन्दन वन प्रस्थान किए।
जया मिश्रा, कटहल मोड़ रांची
