समारोह में करें सखुआ के पत्तल व दोने का प्रयोग, सेहत और पर्यावरण पर होगा बड़ा उपकार

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समारोह में करें सखुआ के पत्तल व दोने का प्रयोग, सेहत और पर्यावरण पर होगा बड़ा उपकार

 

पहले टुंडी और उसके आस पास के क्षेत्रों में शादी और भोज-भात के मौकों पर स्थानीय सखुआ के पत्तों से निर्मित पत्तलों का प्रयोग किया जाता था। अब कृत्रिम प्लास्टिक कोटेड कागजी पत्तलों एवं थार्मोकोल का प्रयोग होने लगा। पहली बात ये पर्यावरण की दृष्टि से बेहद हानिकारक है वहीं यह आर्थिक और पारिस्थितिक दृष्टि से भी उपयुक्त नहीं है। 

     टुंडी जंगलों के बीच बसा है यहां सखुआ, पलाश जैसे पेडों की भरमार है। खासकर सखुआ के पत्तों से पत्तल और दोने आसानी से बनाए जा सकते हैं। पत्तल के लिए सागवान के पत्ते का भी प्रयोग किया जा सकता है। ताजे पत्ते से बने पत्तल और दोने की बात ही कुछ और है। एक तो इसमे स्थानीयता का भाव होता है वहीं यह प्रकृति से भी जुड़ने का एहसास भी देता है। 

  अभी कुछ दिन पहले मेरे एक मित्र गोआ गए थे। उन्हे वहां खाना सखुआ पत्ते से बने पत्तल में खाने को दिया गया। पत्तल का नाम ऑर्गनिक पत्तल बताया गया। उन्होंने ही मुझे बताया कि वहां ताजे हरे पत्तलों का क्या क्रेज है। 

       ताजे हरे पत्तलों में खाने से किसी हानिकारक रसायन के घोंटाने की संभावना एक तो शून्य होती है वहीं खाना खाने में एक खांटीपन भी आता है। जब जूठन के ढेर को गाय या मवेशी खाते हैं तो इन पत्तों को खाने से उन्हें कोई नुकसान नहीं होता। एक और बात ये बायो डिग्रेडेबल होते हैं और जल्द सड़कर मिट्टी में मिल भी जाते हैं। मिट्टी में मिलकर ये मिट्टी के लिए भी हानिकारक नहीं होते बल्कि उसकी भी गुणवत्ता बढ़ाते हैं। 

       अतः यदि हम अपने घरों में शादी समारोहों में इसके प्रयोग को बढाएं तो सेहत और पर्यावरण पर बड़ा उपकार होगा। इन्हे धनबाद और पास के बाजारों तक भी बेचकर अच्छी कमाई की जा सकती है। झारखंड सरकार का झारक्राफ्ट विभाग भी इसे प्रोमोट करने की नीति बना रहा है। आर्थिक दृष्टि से उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग कर इस व्यवसाय को स्केलेबल भी बनाया जा सकता है। आधुनिक तकनीक का सहारा लेकर इसे टिकाऊ बनाकर निर्यात भी किया जा सकते हैं। इससे स्थानीय आम लोगों खास कर वृद्ध और शारीरिक रूप से लाचार लोगों को रोजगार और आर्थिक सहायता मिल सकती है। मैं इसे टुंडी की पहचान के रूप में देखना चाहता हूँ। 

 अतः हम इस दिशा में प्रयास करें तो बहुत ही अच्छा कार्य होगा। प्रकृति से जुड़कर अत्यल्प संसाधन से व्यवसाय। कम से कम अपने घरों में विभिन्न मौकों पर इनका उपयोग कर एक सकरात्मक प्रयास तो किया ही जा सकता है। अतः एकबार इस दिशा में जरूर सोचें। 

जयंत चक्रपाणि 

शिक्षक

सेठ सुखीराम मध्य विद्यालय, गोविंदपुर 

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