गोविदंपुर : बगैर छत के मंदिर में विराजती है वनकाली माता
वासंतिक नवरात्र पर विशेष
दीपक मिश्रा : वन के मध्य में ही विशाल वटवृक्ष के नीचे मां वनकाली का दरबार। यहां की गहन शांति व प्राकृतिक माहोल आपके चित्त के मां की भक्ति में स्थिर कर देती है। यहां आने के बाद भक्तों को यह स्थल छोड़ने का मन नहीं करता है। पक्षियों की चहचहाट, आसपास का प्राकृतिक नजारा व अगरबत्ती अदि से सुवासित वातावरण । यह नजारा है गोविंदपुर स्थित वनकाली मंदिर का। शोर शराबे से दूर यह मंदिर आस्था एवं भक्ति का केंद्र है। हर शनिवार व मंगलवार को भक्तों की भीड़ उमड़ती है।
1860 में हुई थी मंदिर की स्थापना
धनबवद जिलांतर्गत गोबिंदपुर बाजार से बमुश्किल दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर में दूर-दूर से भक्तगण पूजा करने पहुंचते है। एसी मान्यता है कि यहां पर मांगी गई मुरादंे अवश्य ही पूरी होती हैं। इस मंदिर की स्थापना सन 1860 में की गयी थी।स्थानीय निवासियों की मानें तो यह एक प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर के प्रति लोगों में गहरी आस्थ है। कहाजाता है कि शिवपति रुज ने बंगाल के तीरल से लाकर मां की स्थापना की थी। नगरकियारी राज के आचार्य राम विष्णु लायक ने देवी की प्रतिष्ठा की थी। मंदिर के पुजारी ने बताया कि हर मंगलवार और शनिवार को मां के दरबार में भक्तों का ताता लगा रहता है। हर अमावस्या को भी भक्तों की भीड़ जुटती है। कहा कि देवी भक्तों की मनोकामना पूरी करती है। काली पूजा के दिन विशेष तौर पर मां की पूजा की जाती है। यहां मां को खीर, खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। यहां पाठा बलि की प्रथा भी निभाई जाती है।
बगैर छत के मंदिर में होती है वनकाली की पूजा
गोविंदपुर बाजार से करीब दो किलोमीटर दूर दक्षिण में वनकाली मंदिर स्थापित है। घने वन के बीच मंदिर होने के कारण इसका नाम वन काली मंदिर पड़ गया। यहां बगैर छत वाले मंदिर में ही माता की पूजा होती है। विशाल बरगद से अच्छादित इस मंदिर की दिव्यता देखते ही बनती है। कहा जाता है मां काली एक भक्त को चिड़िया के रूप में उनके सामने प्रकट हुई और मंदिर नहीं बनाने का आदेश दिया। इसके बाद से ही मां का मंदिर बिना छत का है। बीच में कई लोगों ने प्रयास किया, पर मंदिर नहीं बना सके।