टुंडी व पूर्वी टुंडी में सोहराय की धूम
संजीत कुमार तिवारी,धनबाद : टुंडी प्रखंड क्षेत्र के बरवाटांड पंचायत अंतर्गत कपासटांड सहित पूर्वी टुंडी के विभिन्न गांव में शुक्रवार को सोहराय पर्व के अवसर पर आज तीसरे दिन बरदखूंटा काआयोजन किया गया। साथ ही धूमधाम से यह पर्व मनाया जा रहा है। आदिवासियों का सोहराय पर्व 4 जनवरी से प्रारंभ हो चुका है। पांच दिनों तक चलने वाले इस पर्व का संबंध सृष्टि की उत्पत्ति से जुड़ा हुआ है। आदिवासी समाज के इस महान पर्व को लेकर झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा आदि राज्यों में बहुत पहले से तैयारी प्रारंभ हो जाती है।
जनजातीय समाज में इस पर्व का बेहद खास महत्व है। जनजातीय समाज इस पर्व को उत्सव की तरह मनाता है। आदिवासी समाज की संस्कृति और सभ्यता काफी रोचक है। शांत चित्त स्वभाव के लिए जाना जाने वाला आदिवासी समुदाय मूलतः प्रकृति पूजक है।
आदिवासियों में सोहराय पर्व की उत्पत्ति की कथा भी काफी रोचक है। इसकी कथा सृष्टि की उत्पति से जुड़ी हुई है। आदिवासी समाज में प्रचलित कथा के अनुसार, जब मंचपुरी अर्थात् मृत्यु लोक में मानवों की उत्पत्ति होने लगी, तो बच्चों के लिए दूध की जरूरत महसूस होने लगी। उस काल खंड में पशुओं का सृजन स्वर्ग लोक में होता था।मानव जाति की इस मांग पर मरांगबुरु अर्थात् आदिवासियों के सबसे प्रभावशाली देवता। (यहां बताना यह जरूरी है कि शेष भारतीय समाज मरांगबुरू को शिव के रूप में देखता है, लेकिन जन जातीय समाज में मरांगबुरू का स्थान शिव से भी उपर है।)
इधर पूर्वी टुंडी प्रखंड के झामुमो नेता
संदीप हांसदा के आवासीय परिसर ग्राम बिश्वाडीह में मानव सृष्टि और प्रकृति पूजा का उत्सव आदिवासियों का महापर्व सोहराय(बांदना) जो समाज में मिलजुल कर रहने की प्रेरणा देता है,वसौहार्दपूर्ण वातावरण में मनाया जा रहा है। संदीप हांसदा के नेतृत्व में मांदर की थाप और पारम्परिक नृत्य पर थिरकते हुए उत्सव को हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। आदिवासियों का सप्ताह भर चलने वाले इस पोरोब सगुन सोहराय में पशुओं के साथ उनके वासस्थल गोहाल की पूजा की जाती है। यह देश की गौरवशाली परंपरा का घोतक है। जनवरी माह में मनाया जाने वाला इस पर्व को विशेष धार्मिक व पारंपरिक अनुष्ठान के साथ मनाया जाता है।आदिवासी समाज में ढ़ोल ढाक वाद्ययंत्र सोहराय गीतों के नृत्य के साथ मनाया जाता है। सोहराय में गीत नृत्य का अपना एक विशेष महत्व है। पूरी दुनिया जहां पर्यावरण, पशु धन संकटों से जूझ रहा है, जिसका एक ही समाधान है, सोहराय पर्व को प्रमुखता और जागरूकता के साथ प्रोत्साहन देना होगा। पशुधन की महत्ता पर आधारित बांदना पर्व, पशुधन व कृषि यंत्रों को धान का मुकुट पहना कर मनाया जाता है तथा मान्यता के अनुरूप उपजाया गया फसल के पहले/बदौलत हक्कदार होतें हैं। प्रकृति प्रेमी झारखंडी लोगों के सभी पर्व प्रकृति व कृषि से जुड़ाव रखते हैं। कृषि कार्य शुरू करने से धान काटने तक हर कदम पर अलग-अलग पर्व त्यौहार मनाने की परंपरा है। इस दौरान मुख्य रूप से अनिल हांसदा, सर्वेश हांसदा, आनंद हांसदा, कालीचरण हांसदा, गणेश हांसदा, सुखलाल मुर्मू, हेमलाल किस्कू,मिरूलाल टुडू, कैलाश हांसदा आदि उपस्थित थे।